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क्या है वो ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार प्रक्रिया, जिसकी मदद से पहाड़ का सीना चीरकर बाहर निकाले जाएंगे 41 मजदूर

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ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (GPR) एक ऐसी पद्धति है जो किसी वस्तु या ढांचे को छुए बगैर ही उसके नीचे मौजूद कंक्रीट, केबल, धातु, पाइप या अन्य वस्तुओं की पहचान कर सकती है. इसकी मदद 8-10 मीटर तक की वस्तुओं का पता लगाने में ली जाती है. ये नीचे या अंदर के स्थितियों को जानने के लिए रेडियो तरंगों का उपयोग होता है.

फिलहाल उत्तरकाशी में फंसे मजदूरों की स्थिति जानने और उसी हिसाब से टनल में जमा मलबा निकालने में इसकी मदद ली जा रही है. ये अब इस काम में काफी उपयोगी साबित हुआ है.

कौन था आविष्कारक
वाल्टर स्टर्न ने 1929 में पहला ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (जीपीआर) विकसित किया. उन्होंने इसका उपयोग ऑस्ट्रिया में एक ग्लेशियर की गहराई मापने के लिए किया. जीपीआर मूल रूप से 1930 के दशक में ग्लेशियर की मोटाई मापने के लिए विकसित किया गया था. बाद में जीपीआर के लिए 1960 में हार्डवेयर और1970 में सॉफ्टवेयर विकसित हुए. पहले तो ये प्रक्रिया महंगी थी लेकिन अब सस्ती हो गई है.

वैसे वाल्टर स्टर्न से भी पहले 1910 में गोथेल्फ़ लीम्बाच और हेनरिक लोवी ने दबी हुई वस्तुओं का पता लगाने के लिए रडार तरंगों का उपयोग करने वाली प्रणाली के लिए पहला पेटेंट पेश किया था.

माइक्रोवेव तरंगों के जरिए काम करता है
जीपीआर एक ऐसी तकनीक है जो माइक्रोवेव को सतह पर भेजती है. जब तरंगें विभिन्न विद्युत गुणों वाले क्षेत्रों का सामना करती हैं तो वे डिवाइस पर वापस इस तरह प्रतिबिंबित बनाती हैं कि सतह के नीचे की वस्तुओं के बारे में पता लगता है. इसमें परावर्तित ऊर्जा को रडारग्राम पर एक पैटर्न के रूप में दर्ज किया जाता है. ग्राउंड-पेनेट्रेटिंग रडार 10 मेगाहर्ट्ज और 2.6 गीगाहर्ट्ज के बीच माइक्रोवेव रेंज में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम (ईएमएस) का उपयोग करके उपसतह की छवियां देता है.

इसी वजह से उत्तरकाशी में जिस टनल में मजदूर फंसे हैं, उसमें मलबे की स्थिति और उसमें कितने पीछे मजदूर हैं, इसका पता लगाया जा रहा है और फिर उसी के जरिए टनल में खुदाई की जा रही है. उसी हिसाब से उपयुक्त जगहों से पाइप डालकर या जगह बनाकर मजदूरों को निकालने का आपरेशन चलाया जा रहा है

जीपीआर का उपयोग किन कामों में
– भूमिगत चीजों की स्थिति का पता लगाने में
– नागरिक संरचनाओं की निगरानी करने में

अमेरिका और यूरोपीय देशों में इस तकनीक का उपयोग जमीन के नीचे दबी कब्रों का पता लगाने में भी हो रहा है.

इसमें कौन से उपकरण प्रयोग होते हैं
यह माइक्रोवेव बैंड में ऊर्जा तरंगों का उपयोग करता है, जिनकी आवृत्ति 1 से 1000 मेगाहर्ट्ज तक होती है. जीपीआर को मुख्य तौर पर दो मुख्य चीजों की जरूरत होती है – एक ट्रांसमीटर और दूसरा रिसिप्टर एंटीना. ट्रांसमीटर मिट्टी और अन्य सामग्री में विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा भेजता है. ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार जमीन में एक पल्स उत्सर्जित करके और उपसतह वस्तुओं से उत्पन्न होने वाली गूंज को रिकॉर्ड करने का काम करता है. फिर जीपीआर इमेजिंग उपकरण जमीनी सामग्री की संरचना का विश्लेषण कर बताते हैं कि वांछित वस्तु कितनी दूरी और किस तरह से है. वो कितनी लंबी चौड़ी है.

जब विद्युत चुम्बकीय आवेग किसी वस्तु से टकराता है, तो वस्तु के घनत्व को संकेतों के जरिए प्रतिबिंबित में जाहिर करता है. रिसीवर लौटने वाले संकेतों का पता लगाता है और भीतर की सारी स्थितियों को भी रिकॉर्ड करता है. जिससे सिस्टम का साफ्टवेयर एक पूरा चित्र बनाता है कि अवरोध कहां तक है. कितनी दूरी और किस पोजिशन पर वांछित चीज है.

कौन सी वस्तुएं इससे पहचान में आती हैं
– धातु
– प्लास्टिक
– पीवीसी
– ठोस
– प्राकृतिक सामग्री
– अगर किसी ने इन्हें पहना हुआ है तो भी ये बता देगा कि ये सबकुछ कहां और कितनी दूरी पर है.

इसके फायदे क्या हैं
जीपीआर सर्वेक्षण का बहुत प्रभावी और बेहतर तरीका है. श्रमिकों के जमीन या पहाड़ तोड़ने या खुदाई शुरू करने से पहले की जानकारी देता है
– इससे डेटा तुरंत पता लगता है और ये एक बड़े साइट क्षेत्र को कवर कर सकता है
– डेटा प्रदान करने के लिए सतह के केवल एक तरफ को स्कैन करने की जरूरत होती है

इसे किस तरह की जमीनी स्थितियों पर लागू किया जा सकता है
– मिट्टी
– चट्टान
– बर्फ़
– ताजा पानी
– फुटपाथ
– कंक्रीट संरचनाएं

ये कितनी गहराई तक असरदार रहते हैं

जीपीआर सिग्नल 100 फीट (30 मीटर) की गहराई तक की गहराई या मोटाई तक असरदार रहते हैं. हालांकि नम मिट्टी और अन्य उच्च चालकता वाली सामग्रियों में जीपीआर उतना असरदार नहीं हो पाता है.

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